Maidaan

पास के क्रिकेट के मैदान में अब घास नहीं उगती,
हर कहीं पैर पड़ने की वजह से अब ज़मीन बंजर हो चली है |
खेल तो अब भी खेले जाते हैं, पास दूर से बहुत बच्चे रोज़ आते हैं,
दिन भर चिल्ल-पों मचता ही रहता है, मैदान यह सब चुपचाप सहता है |

बाउंड्री पर अब झाड़ भी सूख चूका है,
कोना कोना मटमैला रूख चूका है |
गेंद जब सरक कर कोने की दीवार पर आके टकराती है,
कराह उठता है वो मैदान जैसे कोई सुई चुभो दी हो |

नाराज़ तो होता है लेकिन बच्चो की ख़ुशी देख कर लौटा देता है गेंद,
उसे तो इंतज़ार रहता है कि अँधेरा हो और बच्चे घर लौट जाएँ |
शाम ढलते ही बाउंड्री के बाहर वाले पेड़ो पर पक्षी लौट आते हैं,
सुरीली से करतल ध्वनि उस मैदान को गाके सुनाते हैं |

उन्ही पेड़ों से रोड-लाइट की रौशनी जब छन के आती है मैदान पर,
कोई नहीं होता क्रिकेट खेलने वाला, असली तब आता है मज़ा उस मैदान को |
पक्षी भी सोचुके होते हैं तब तक, अलग सा सन्नाटा छा जाता है,
बाउंड्री की दीवारें तत्पर रहती है अँधेरे के लिए, मन ही मन मुस्कुराती हुई |

थोडा और अँधेरा ढलने पर, दीवारों पर फूल खिल उठते हैं,
थोड़े थोड़े अंतराल पर, जहां जहां रोशनी नहीं होती |
चहचहाते हैं फूल, अठखेलियाँ करते हैं,
मैदान खुश हो उठता है, पेड़ो से रौशनी और कम कर देता है |

जब तक फूल आपस में व्यस्त रहते हैं, निहारता रहता है सुनसान मैदान उन्हें,
दिन भर जो बंजर रहा, जैसे अँधेरा होते हैं वसंत ऋतू आ गई हो |
जो दिन भर हुल्लड़ बाजी और शोर शराबा होता रहा,
अँधेरे में वहीँ वायलिन और सैक्सोफोन बजने लगते हैं |

जब कोई गुज़रता है मैदान के बाहर से, कोशिश करता है मैदान के फूल disturb न हो,
गुजरने वाले को जिज्ञासा भी होती हो, तो होने दो, मैदान तो फूला नहीं समाता |
थोड़ा सा कभी बाहर वाला भी मुस्कुरा देता है फूलों को देख कर,
मैदान को आँख मार कर इशारा कर देता है, कि लगे रहो, अपने को क्या |

कुछ तुनकमिजाज़ियों को फूल पसंद नहीं, खांस कर वो जता देते हैं,
फूल भी समझ जाते हैं, कि अँधेरा काफी हो चला है |
उलझी हुई अपनी डालियों को सुलझा के बिछड़ जाते हैं,
मिलेंगे फिर यहीं, इसी वक़्त कह के एक बार फिर से बंजर कर जाते हैं मैदान |

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