When Nature Wants, It Takes It Back

There’s a garden near my apartment which ‘was’ used by the people for jogging, playing milder outdoor games and good old sitting and chatting (and romancing). Since last month, it has been taken over by birds from far and wide and humans have been ousted. Cool, I say!

Those birds are probably migratory, as there’s a lake nearby but isn’t this in itself a feat! The whole place is now white in color thanks to the bird’s shit and it smells like a chicken cage. But people cannot go there anymore. A lock has been installed outside the gate and place is now indefinitely inaccessible for humans. Isn’t this a rare occasion? A garden 500 square meter right between the city surrounded by houses from all sides has now been taken away from people.

I guess this is a very minute example of the fact that we humans take our self too seriously. We plan, build and live considering that everything is permanent while it is far from being even temporary. Whenever nature decides to take it back it does and we can just be mere spectators.

Probably soon, the municipal corporation will shoo away the birds by hook or crook as the neighbors have complained about the dangerous of diseases. What about the diseases we’ve given to these birds?

Maidaan

पास के क्रिकेट के मैदान में अब घास नहीं उगती,
हर कहीं पैर पड़ने की वजह से अब ज़मीन बंजर हो चली है |
खेल तो अब भी खेले जाते हैं, पास दूर से बहुत बच्चे रोज़ आते हैं,
दिन भर चिल्ल-पों मचता ही रहता है, मैदान यह सब चुपचाप सहता है |

बाउंड्री पर अब झाड़ भी सूख चूका है,
कोना कोना मटमैला रूख चूका है |
गेंद जब सरक कर कोने की दीवार पर आके टकराती है,
कराह उठता है वो मैदान जैसे कोई सुई चुभो दी हो |

नाराज़ तो होता है लेकिन बच्चो की ख़ुशी देख कर लौटा देता है गेंद,
उसे तो इंतज़ार रहता है कि अँधेरा हो और बच्चे घर लौट जाएँ |
शाम ढलते ही बाउंड्री के बाहर वाले पेड़ो पर पक्षी लौट आते हैं,
सुरीली से करतल ध्वनि उस मैदान को गाके सुनाते हैं |

उन्ही पेड़ों से रोड-लाइट की रौशनी जब छन के आती है मैदान पर,
कोई नहीं होता क्रिकेट खेलने वाला, असली तब आता है मज़ा उस मैदान को |
पक्षी भी सोचुके होते हैं तब तक, अलग सा सन्नाटा छा जाता है,
बाउंड्री की दीवारें तत्पर रहती है अँधेरे के लिए, मन ही मन मुस्कुराती हुई |

थोडा और अँधेरा ढलने पर, दीवारों पर फूल खिल उठते हैं,
थोड़े थोड़े अंतराल पर, जहां जहां रोशनी नहीं होती |
चहचहाते हैं फूल, अठखेलियाँ करते हैं,
मैदान खुश हो उठता है, पेड़ो से रौशनी और कम कर देता है |

जब तक फूल आपस में व्यस्त रहते हैं, निहारता रहता है सुनसान मैदान उन्हें,
दिन भर जो बंजर रहा, जैसे अँधेरा होते हैं वसंत ऋतू आ गई हो |
जो दिन भर हुल्लड़ बाजी और शोर शराबा होता रहा,
अँधेरे में वहीँ वायलिन और सैक्सोफोन बजने लगते हैं |

जब कोई गुज़रता है मैदान के बाहर से, कोशिश करता है मैदान के फूल disturb न हो,
गुजरने वाले को जिज्ञासा भी होती हो, तो होने दो, मैदान तो फूला नहीं समाता |
थोड़ा सा कभी बाहर वाला भी मुस्कुरा देता है फूलों को देख कर,
मैदान को आँख मार कर इशारा कर देता है, कि लगे रहो, अपने को क्या |

कुछ तुनकमिजाज़ियों को फूल पसंद नहीं, खांस कर वो जता देते हैं,
फूल भी समझ जाते हैं, कि अँधेरा काफी हो चला है |
उलझी हुई अपनी डालियों को सुलझा के बिछड़ जाते हैं,
मिलेंगे फिर यहीं, इसी वक़्त कह के एक बार फिर से बंजर कर जाते हैं मैदान |

Maidaan
Maidaan